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Monday, June 11, 2012

Kabhi waqt tez chala, kabhi tham sa gaya ....

अपने हाथों से बिखेर देने को
कोई रेत का घर तो नहीं बनाता
लोगों के क्यों का जवाब
टूटे दिल से भी तो दिया नहीं जाता

बेरूखी खुद से बिखर जाने पर हो
ये इज़ाज़त तो हर बार हासिल भी नहीं
जब टूटा हो दिल कई बार तो
रुसवाई के पार कुछ और देखा भी नहीं जाता

शक अपने इश्क पर होता नहीं था कभी
न दिल से गिला रहा कभी न दिलदार से मुझे
हर बार शिकायत रही तो बस कम्बख्त  वक़्त से  रही
कभी तेज़ रहा, कभी थम गया, बस गलत  रफ्तार  से चला

एक mera ही तो दिल नहीं इस सारे जहान में
फिर दर्द कहीं  और जा कर ठहर क्यूँ  नहीं जाता
रुसवाई  से मेरी दोस्ती  की दास्तान  पुरानी  है
ग़ालिब  सेभी  तो किले का जिक्र बार बार तो किया नहीं जाता

इस से पहले  की लहरें घर को रेत का फिर से ढेर कर दे
अपने हाथों से तोड़ देते हैं  कभीइल्म से कभी गुस्ताखी  से
दीद -ए - यार  की ख्वाहिश में का ये दिल कायल  तो नहीं
पर दीदार पर यह कतरा भी न रोये इतना पत्थर  भी हुआ  नहीं जाता

शिकायत हर बार मुझे इस वक़्त से रही
जो कभी बहुत तेज़ चला  तो कभी थम सा गया ।









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